Sunday, September 8, 2024
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आरएसएस-भाजपा विवाद और मीडिया – डॉ. आमोदकांत

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आरएसएस-भाजपा विवाद और मीडिया – डॉ. आमोदकांत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रमुखों के अलावा कुछ नेताओं की बयानबाजी पर चर्चाएं हो रहीं हैं। तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में इन बयानों को लेकर मीडिया का एक वर्ग बहुत ही सक्रिय है। तथाकथित गहराते विवाद पर विचार प्रस्तुत हो रहे हैं। हो भी न क्यों; संविधान में सबको अपने-अपने विचार रखने की खुली छूट जो है। किसी भी तरह के विचार परोसने से पहले समाज पर पड़ने वाले सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों का आंकलन तो करना ही चाहिए, लेकिन आंकलन करने की बजाय ये सब लाइक्स और टीआरपी की चिंता में हैं। यह व्यावसायिक रूप से तो सही है, लेकिन स्वस्थ पत्रकारिता अथवा सोशल अवेयरनेस के लिए नहीं। वक्तव्यों के कुछ चुनिंदा और स्वहित साधने वाले वाक्यों को लेकर स्वस्थ और निष्पक्ष समाधान ढूंढना न खुद की छवि के लिए उचित है और न ही ऐसे संस्थान या मीडिया हॉउस के लिए जहाँ काम कर रहे हैं। आरएसएस और भाजपा नेताओं के वक्तव्यों को लेकर जो घमासान चल रहा है, इस पर से पर्दा हटाया जाना जरूरी है और इसके प्रयास भी होने चाहिए; लेकिन कुछ चुनिंदा वाक्यों के आधार पर की जाने वाली कोशिश; पानी में लाठी मारने जैसा है।

श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा

सोशल मीडिया पर जिन वक्तव्यों की चर्चाएं हो रहीं हैं, उनमें प्रमुख रूप से अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत की उपस्थिति के अलावा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के बयान कि ‘आरएसएस की आवश्यकता अटल बिहारी वाजपेयी काल में थी, वर्तमान में भाजपा सक्षम है; शामिल हैं।

22 जनवरी 2024 को होने वाले श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह के उस पल को याद कीजिये, जब पीएम नरेन्द्र मोदी श्रीरामलला की प्राणप्रतिष्ठा के लिए पूजन कर रहे थे। बगल में बैठे सर-संघचालक मोहन भागवत अपने संगठन आरएसएस की उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। उस वक्त के इस दृश्य को अनेक विचारकों ने अनेक रूपों में लिया था और व्याख्याएं भी सामने आईं थीं। अब इसकी अलग ही व्याख्या सामने आ रही है। अनेक मीडिया हॉउस के तथाकथित पत्रकार और सोशल मीडिया के पहरुओं द्वारा यह कहते सुना जा रहा है कि पीएम नरेन्द्र मोदी ने खुद को संघ से बड़ा प्रदर्शित करने को श्रीरामलला प्राण प्रतिष्ठा के दौरान संघ प्रमुख को अपने बगल में बैठाये जाने की व्यवस्था कराई।

चूंकि प्राण प्रतिष्ठा के लिए पीएमओ सीधे व्यवस्थायें सम्भाल रहा था, इसलिए बात में तो दम दिख रहा है, लेकिन हर दिखने वाली दमदार बात सही नहीं होती। इनका तर्क है कि पीएम मोदी सीधे तौर पर विश्व के सनातनियों को यह संदेश दे रहे थे कि इस समय धरती पर उनसे बड़ा अन्य कोई सनातनी नहीं है और यही बात आरएसएस को अखर गयी है। इसके पक्ष में बिना सींह-पूंछ का तर्क देखिये। तर्क है कि श्रीराममंदिर आंदोलन को आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों ने चलाया, लेकिन पूरा श्रेय नरेन्द्र मोदी उठा ले गये।

मोहन भागवत को श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए थी और भारत की धर्म-निरपेक्ष छवि को बचाये रखने के लिए पीएम मोदी को बगल में बैठना चाहिए था। कुछ हद तक यह बात सही लग रही है। अब सवाल यह है कि देश के पीएम का कोई अपना धर्म और व्यक्तिगत जीवन नहीं है क्या? क्या वह अपने धर्म के अनुरूप होने वाली पूजा पद्धति का हिस्सा नहीं बन सकता? यदि ऐसा है तो भारत की राजनीति का हिस्सा बने हर नेता को धर्म-निरपेक्षता की राह अपनानी चाहिए। बंदिश केवल भाजपा से जुड़े पीएम, सीएम और मंत्रियों पर ही क्यों? जनेऊ पहनकर मंदिर-मंदिर घूमने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी, स्वयं को श्रीकृष्ण का वंशज बताने वाले समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और मस्जिद में जाकर सजदा करने वाले यूपी के पूर्व मंत्री आज़म खान पर क्यों नहीं? क्या हर बार सनातन की ही परीक्षा होगी और रामभक्तों को ही गोलियों से भूना जाना आवश्यक है? अन्य राजनीतिक दलों के नेता और मंत्री धर्म-निरपेक्ष क्यों न बनें? यदि नरेन्द्र मोदी व्यक्तिवादी बन चुके हैं। तानाशाही राह अपना ली है।

आरएसएस के कार्यों का श्रेय खुद अकेले ले लिया है तो क्या विपक्ष को भी आरएसएस की राह पकड़ कर व्यक्तिवाद का विरोध नहीं करना चाहिए? राजनीतिक शुचिता के लिए धर्म-निरपेक्षता का राग अलापने वालों को भी इन विकल्पों पर अमल करना चाहिए। परिवारवादी राजनीति को दुरुस्त करने में इनका योगदान भी शामिल हो सकता है। पूर्व के शासन काल में सड़कों पर पढ़ी जाने वाली नमाजों पर यदि पाबंदियां लगतीं तो कितना अच्छा होता। यह कार्य धर्म-निरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस, सपा, बसपा अथवा अन्य गठबंधन वाली सरकारों ने यदि पहले ही कर दिया होता तो मंदिरों और मस्जिदों पर लगाए गये लाउडस्पीकर्स की ध्वनियों को नियंत्रित करने का कार्य योगी आदित्यनाथ सरकार को नहीं करना पड़ता। यह श्रेय उन्हें ही मिल जाता। इससे धर्म निरपेक्षता का पालन भी होता और समाज को सहूलियत भी मिल गयी होती।
याद रखिये, 1986 में श्रीरामजन्म भूमि मंदिर का ताला खुलवाने में राजीव गांधी सरकार का कोई योगदान नहीं था, लेकिन उनकी सरकार के न चाहते हुए भी फैज़ाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी ने ताला खुलावाया था। बावजूद इसके इसका श्रेय कांग्रेस को ही मिलता है।

इधर, लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का वक्तव्य कि ‘आरएसएस की आवश्यकता अटल बिहारी बाजपेयी के काल में थी, अब हम सक्षम हैं’; पर विचार करते हैं। जब पार्टी का बड़ा ओहादेदार यह कह रहा है, तब निश्चय ही वह जान रहा है कि शीर्ष से लेकर जमीन स्तर तक संघ पृष्ठभूमि के ही कार्यकर्ता हैं। ऐसे वक्तव्यों को पत्रकार भी समझते हैं। वह भी जानते हैं कि ऐसा वक्तव्य केवल राजनीतिक पैंतरेबाजी का हिस्सा है। फिर, यह कितना उचित है कि इस तरह की समीक्षाएं और कयासबाजियाँ करें, जो समाज को मतिभ्रम करें? क्या यही पत्रकारिता धर्म है कि सबकुछ जानते-समझते हुए एक अलग तरह की व्याख्या करें? और यदि सबकुछ जानते हुए ऐसा किया गया तो मीडिया संस्थानों को क्या करना चाहिए?

यह कहना कि नड्डा के वक्तव्य से आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों के कार्यकर्ताओं के स्वाभिमान को ठेस पहुंची, कतई विश्वास के योग्य नहीं है। एक कैडर के रूप में जाने और पहचाने जाने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। उनके बल पर ही सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा उभर पायी है। यह ठीक उसी प्रकार का वक्तव्य है, जैसे ‘इस बार 400 पार’ का नारा देकर भाजपा ने विपक्षियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का कार्य किया था। हाँ, यह बात जरूर है कि इस वक्तव्य में अपने कार्य में निपुण व सक्षम हो चुके कार्यकर्ताओं का मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ाने का भाव भी निहित था।

कलमकारों को यह बात भी समझनी चाहिए कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान संघ की अगुवाई में होने वाली 45 हजार से अधिक बैठकों का हिस्सा भी ऐसे ही कार्यकर्ता थे। इनमें केवल किसी जाति विशेष से जुड़ा स्वयंसेवक अथवा कार्यकर्ता नहीं था, बल्कि इनमें सनातन के अलावा अन्य संप्रदायों, समुदायों, वर्ग और जातियों के स्वयंसेवक या कार्यकर्ता शामिल रहे। हाँ, भाजपा को जातिगत झुकाव को आधार बनाकर चुनावी समीक्षा नहीं करनी चाहिए। पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान और पूर्व विधायक संगीत सोम जैसे नेताओं को जीत की तरह ही हार को पचाने की नसीहत देना आवश्यक है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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